(गाँव ही मेरा शहर लगता है।)
○○○○○○
मुझे क्यूं सफेद कागजों में भी कोई खबर लगता है
बड़े इमारतों का शुक्रिया गाँव ही मेरा शहर लगता है।
○○○○○○
उससे पुछो स्वाद जिसे मिठास से बिमारी हो गयी
पसंद तो है मगर उसे शक्कर भी जहर लगता है।
○○○○○○
वो पूछते थे बड़े मसक्कत से मुझे कहाँ खोये हो
मैं कहता था कुछ नहीं बस तूझे खोंने से डर लगता है।
○○○○○○
अब कहानी थोड़ी बदल गयी है मेरी जिन्दगी की
बगान था अब दिल कोई कब्रिस्तान का कब्र लगता है।
○○○○○○
नींद लाने में कितनी हाथापाई करता हुँ तकिये से मैं
मुझे तो काली आधी रात भी दोपहर लगता है।
○○○○○○
रंगीन बनाओ वक्त बिताओ जियो वरना कट जायेगी
ये जिन्दगी भी किसी अनजान शहर का सफर लगता है।
Your ashish